सोमवार, 17 जनवरी 2011

सीता कहाँ ??

हे धरती, तुम तो फटी!
पर सीता कहाँ समाई इसमें?
तुम्हारी दरारों ने निगल डाले
असंख्य छत-दीवारें,
रक्त रंजित बेगुनाह लाशें
कई बूढ़े जनकों ने
अपने दृगों के अश्रु डाल
अपनी झुर्रियों के अरमा निकाल
पाटे हैं तुम्हारे दरार।
कई लवो के घावों ने,
कई कुशों के पाँवों ने,
कितने अनाथ परिवारों ने,
मुँह से छीने निवालों ने
पाटे हैं तुम्हारे दरार।
हिल चुका है तुम्हारे संग
अनगिनत भविष्य
असह्य है वर्तमान।
हे धरती, तुम तो फटी!
पर तुम सीता बाँचना भूल गई